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Posted by Surinder Verma on Wednesday, June 17, 2020

40 मुक्तों की पवित्र धरती, मकर संक्रांति पर यहां श्रद्धालु लगाते हैं आस्था की डुबकी

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श्री मुक्तसर साहिब । माघ महीने का पहला दिन मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। इस दिन का सिख-इतिहास में भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस पवित्र दिन के साथ दो उल्लेखनीय प्रसंग जुड़े हुए हैं। एक तो यह श्री हरिमंदिर साहिब, अमृतसर का स्थापना दिवस है और दूसरा इस दिन पवित्र नगर मुक्तसर में चालीस मुक्तों की याद में माघी मेला लगता है। मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचकर पवित्र सरोवर में माघी स्नान कर मुक्तों को नमन करते हैं।
श्री मुक्तसर साहिब में मकर संक्रांति पर लगने वाले मेले का खास महत्व है। पुराने समय में श्री मुक्तसर साहिब में मेला 21 वैसाख को मनाया जाता था, लेकिन उस दौरान पानी की कमी होती है, इसी कारण इसे सर्दी में मनाया जाने लगा। अब लंबे समय से यह मेला मकर संक्रांति को मनाया जाता है। इसी कारण इसका नाम ही माघी मेला पड़ गया है। समय के साथ यह मेला धार्मिक होने के अलावा व्यापारिक भी बन गया है।
इस दिन श्री दरबार साहिब में तमाम धार्मिक समागम होते हैं। इनमें 12 जनवरी से श्री अखंड पाठ साहिब का प्रकाश करवाया जाता है, 13 जनवरी को दीवान सजाए जाते हैं और माघी वाले दिन 14 जनवरी को श्री अखंड पाठ साहिब का भोग डाला जाता है। अगले दिन 15 जनवरी को नगर कीर्तन सजाने के साथ ही मेला की रवाइती तौर पर समाप्ति हो जाती है। दूरदराज से लाखों लोग यहां पर पूरी श्रद्धा से आते हैं और श्री दरबार साहिब में नतमस्तक होते हैं।
यूं पड़ा ‘मुक्तसर’ नाम 
श्री मुक्तसर साहिब बने ऐतिहासिक नगर का नाम पहले खिदराणा था। यह क्षेत्र जंगली होने के कारण यहां अक्सर पानी की कमी रहती थी। भूजल स्तर बहुत नीचा होने के चलते यदि कोई प्रयत्न करके कुंए आदि लगाने का प्रयास भी करता तो नीचे से पानी ही इतना खारा निकलता कि वह पीने के योग्य न होता। इसलिए यहां एक ढाब (कच्चा तालाब) खुदवाई गई जिसमें बरसात का पानी जमा किया जाता था व इस ढाब के मालिक का नाम खिदराणा था जो फिरोज़पुर जिले के जलालाबाद का निवासी था, जिस कारण इसका नाम ‘खिदराणे की ढाब’ मशहूर था।
इस स्थान पर दशम पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने मुगल हुकूमत के विरुद्ध 1705 में अपना अंतिम युद्ध लड़ा, जिसे खिदराणे की जंग भी कहा जाता है। यह युद्ध 21 वैसाख 1762 विक्रमी संवत को हुआ। चमकौर के युद्ध के बाद अनेक स्थानों से होते हुए गुरु जी यहां पहुंचे थे। सरहिंद के सूबेदार वजीर खान की फौज गुरु जी का पीछा कर रही थी। ऐसे में वे चालीस सिख जो आनंदपुर साहिब में गुरु जी को बेदावा (त्यागपत्र) देकर छोड़ आए थे। माई भागो के नेतृत्व में खिदराणे की ढाब में आ डटे।
मुगल लश्कर को घमासान युद्ध के बाद वापस लौटना पड़ा। चालीस के चालीस सिख शहीद हो गए। उनमें से एक भाई महां सिंह ने शहीद होते समय गुरु जी से बेदावा फाड़ देने की प्रार्थना की। गुरु दशमेश पिता ने सभी सिखों का अंतिम संस्कार स्वयं किया और उन्हें ‘मुक्ते’ की उपाधि बख्शी। इसलिए इन्हें चालीस मुक्ते कहा जाता है। मुक्तों और ढाब के कारण इस सरोवर का नाम ‘मुक्तसर’ पड़ा।
ऐतिहासिक गुरुद्वारे 
चालीस मुक्तों व गुरु साहिब की याद में यहां पर गुरुद्वारा टुट्टी गंढ़ी साहिब है, यहां गुरु जी ने बेदावा फाड़ कर चालीस मुक्तों के साथ टुट्टी गंढ़ी थी। इसके अलावा गुरुद्वारा तंबू साहिब, गुरुद्वारा माता भाग कौर जी, गुरुद्वारा शहीद गंज साहिब, गुरुद्वारा टिब्बी साहिब, गुरुद्वारा रकाबसर साहिब, गुरुद्वारा दातनसर साहिब, गुरुद्वारा तरनतारन दुख निवारण साहिब हैं।
कैसे हुआ व्यापारीकरण 
माघी मेले का बीते कुछ समय से व्यापारीकरण हो गया है। हालांकि पहले यह मेला मामूली फीस पर लग जाता था। बीते तीन वर्ष से मेले के दाम इस कदर बढ़ गए हैं कि यह ठेकेदार की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। इस बार मेले का ठेका 46 लाख 30 हजार रुपये में होकर जमीन का ठेका सात लाख रुपये अलग से देना पड़ा। भले धार्मिक कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं आया है लेकिन मनोरंजन मेला व्यापार बनकर रह गया है।
ऐसे पहुंच सकते हैं यहां 
मुक्तसर में श्री दरबार साहिब अबोहर रोड से करीब दो किलोमीटर, जलालाबाद रोड से तीन किलोमीटर, बस स्टैंड से दो किलोमीटर, कोटकपूरा रोड से साढे़ तीन किलोमीटर व फिरोजपुर रोड से चार किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। माघी के अवसर पर एक दिन के लिए सभी शहरों से स्पेशल बसें चलती है। इसके अलावा तीन दिन के लिए स्पेशल ट्रेन भी चलाई जाती है।
श्री हरिमंदिर साहिब की स्थापना का पर्व भी है माघी 
तीसरे पातशाह श्री गुरु अमरदास जी की इच्छा एवं आज्ञा के अनुसार चौथे पातशाह श्री गुरु रामदास जी ने सन 1573 ई में अमृतसर के सरोवर को पक्का करवाया और इसे ‘राम सर’, ‘रामदास सर’ या ‘अमृतसर’ कह कर पुकारा। पंचम पातशाह की अभिलाषा थी कि अमृत सरोवर के मध्य में अकालपुरख के निवास सचखंड के प्रतिरूप के रूप में एक मंदिर की स्थापना की जाए। सिख-परम्परा के अनुसार एक माघ सम्वत 1645 वि. मुताबिक सन 1589 ई को निर्माण कार्य आरंभ करवाया गया और पंचम पातशाह के परम मित्र साई मीआं मीर ने इसकी नींव रखी।
निर्माण कार्य संवत 1661 वि अर्थात 1604 ई में सम्पूर्ण हुआ। पंचम पातशाह ने इसे ‘हरिमंदिर’ अर्थात हरि का मंदिर कहा। एक सितम्बर 1604 ई. को यहां गुरु ग्रंथ साहिब का प्रथम प्रकाश किया गया। गुरु जी ने मानवता के इस महान आध्यात्मिक केंद्र की स्तुति में फरमाया।
पोथी परमेसर का थानु।।
साध संगि गावहि गुण गोबिंद पूरन ब्रहम गिआनु।।
अर्थात यह पोथी में दर्ज गुरबाणी के माध्यम से परमेश्वर को पाने का स्थान है। यहां साध-संगत गोबिंद के गुण गाती है और पूर्ण ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त करती है।