Mirror 365 - NEWS THAT MATTERS

Dear Friends, Mirror365 launches new logo animation for its web identity. Please view, LIKE and share. Best Regards www.mirror365.com

Posted by Surinder Verma on Wednesday, June 17, 2020

लड़के वॉलीबॉल नेट काट देते थे, तो निर्मल रोज नेट जोड़कर प्रैक्टिस करती; वहीं प्रियंका ने घर खर्च चलाने के लिए खो-खो खेलना शुरू किया

0
159

  • साउथ एशियन गेम्स में हिस्सा लेने वाली वॉलीबॉल कप्तान और खो-खो खिलाड़ी के स्ट्रगल की कहानी
  • दोनों खिलाड़ी इन दिनों नेपाल में साउथ एशियन गेम्स में हिस्सा ले रही हैं

Dainik Bhaskar

Dec 02, 2019, 07:24 AM IST

पानीपत/ नई दिल्ली (प्रीतपाल/राजकिशोर). हरियाणा की निर्मल तंवर जब बचपन में वॉलीबॉल खेलती तो गांव के लड़के नेट काट देते। वे रोज नेट जोड़तीं और फिर प्रैक्टिस करतीं। आज वे भारतीय महिला टीम की कप्तान हैं। दूसरी ओर, महाराष्ट्र की प्रियंका ने घर का खर्च चलाने के लिए खो-खो खेलना शुरू किया था। फिलहाल प्रियंका भारतीय टीम की प्रमुख सदस्य हैं। दोनों खिलाड़ी इन दिनों नेपाल में साउथ एशियन गेम्स में हिस्सा ले रही हैं। महिला खो-खो टीम ने पहले मैच में श्रीलंका को पारी से हराया। दोनों खिलाड़ियों के स्ट्रगल की कहानी- 

हाइट अच्छी थी तो कोच ने निर्मल को वॉलीबॉल खेलने को कहा

मेरे पिता अासन कलां में किसान हैं। मैंने पांचवीं तक की पढ़ाई गांव के ही एक प्राइवेट स्कूल में की। वहां खेलने की सुविधा नहीं थी, इसलिए सरकारी स्कूल में एडमिशन लिया। मेरी हाइट अच्छी थी, तो कोच जगदीश कुमार ने मुझे वॉलीबॉल खेलने की सलाह दी। मैं सुबह-शाम प्रैक्टिस करती। गांव में लड़कियां खेलती नहीं थीं, तो मैं लड़कों के साथ प्रैक्टिस करती। मेरा भाई भी साथ खेलता। गांव वालों को अच्छा नहीं लगता था कि लड़की वॉलीबाॅल खेले। जब स्कूल में वॉलीबाॅल की प्रैक्टिस करती तो गांव के लड़के नेट काट देते थे। रोज सुबह कोच जगदीश के साथ नेट जोड़ती और फिर प्रैक्टिस करने लगती। जिला स्तर पर नाम हुआ तो गांव वाले भी सपोर्ट करने लगे। 2014 में भोपाल के साई सेंटर में अंडर-23 के लिए ओपन ट्रायल निकला। मैं सिलेक्ट हो गई। मेरी निरंतरता ने मुझे सफल बनाया। घर में कोई भी फंक्शन हो, मैंने कभी प्रैक्टिस नहीं छोड़ी। मैं खेल के कारण 2 साल तक परीक्षा नहीं दे पाई। इसलिए ओपन से बीए किया। अब रेलवे में टीसी हूं। भारत ने पिछले गेम्स (2016) में गोल्ड जीता था। मुझे इस बार भी गोल्ड की उम्मीद है।  

गांव वालों के विरोध के बाद भी परिवार के सपोर्ट के कारण यहां तक पहुंची 
मैं ठाणे के पास बदलापुर की रहने वाली हूं। जब मैं पांचवीं क्लास में थी, तब स्कूल में सर लंगड़ी करवाते थे। लंगड़ी में बेहतर करने वाले को स्कूल में चलने वाले खो-खो क्लब में शामिल करते। हमारे घर की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय थी। घर में हम दो बहनें और मम्मी व पापा हैं। घर में कमाने वाला कोई नहीं था। पापा को शराब पीने की बुरी आदत थी। जब मैं खो-खो खेलने लगी तो मैच जीतने के बाद इनाम के तौर पर जो पैसे मिलते थे, उसी से घर का खर्च चलता था। ऐसे में मुझे लगा कि खो-खो खेलना है ताकि घर के लिए कुछ कर सकूं। जब नौवीं में थी तो गांव के लोगों ने मेरे खेलने का विरोध किया। लेकिन मां ने मेरा साथ दिया। स्कूल के टीचर ने भी प्रेरित किया। अब खो-खो की बदौलत ही एयरफोर्स अथॉरिटी में नौकरी मिल गई है। मुझे उम्मीद है कि खो-खो लीग शुरू होने के बाद खिलाड़ियों को और बेहतर सुविधा मिल सकेगी।