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Posted by Surinder Verma on Wednesday, June 17, 2020

राजद्रोह कानून सख्त करने की तैयारी, क्योंकि 3 साल में 179 में से सिर्फ 2 लोगों पर जुर्म साबित हुआ

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तीन साल पुराने मामले में जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार व नौ अन्य के खिलाफ चार्जशीट दायर होते ही राजद्रोह कानून पर फिर बहस खड़ी हो गई है। यहां 9 सवालों से जानिए इस कानून से जुड़ा वो सबकुछ एक साथ जो आपके लिए जानना जरूरी है।

क्या है विवाद और अभी किन वजहों से चर्चा में है?

राजद्रोह की प्रासंगिकता को लेकर एक बार फिर विवाद उठा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने पिछले दिनों एक ट्वीट कर राजद्रोह से जुड़ी धारा 124ए को खत्म कर देने की बात कही है। सिब्बल का बयान कन्हैया के खिलाफ दिल्ली पुलिस द्वारा इस धारा में चार्जशीट पेश किए जाने के दो दिन बाद 16 जनवरी को आया। हालांकि सिब्बल से पहले भी इस धारा पर सवाल उठते रहे हैं, इसलिए भी कि अंग्रेज इसे भारतीयों के आंदोलनों को कुचलने के लिए लाए थे। एक तर्क यह भी है कि इस धारा के प्रावधान इतने अस्पष्ट हैं कि इनकी आड़ लेकर लोगों को आसानी से राजद्रोह का आरोपी बनाया जा सकता है।

यह तर्क देने वाले कहते हैं कि ऐसे ही अस्पष्ट प्रावधानों के चलते 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट की धारा 66ए को निरस्त कर दिया था, तो इसे क्यों रद्द नहीं कर दिया जाता? हालांकि कुछ जानकारों का कहना है कि यह कानून जरूरी है। इनके अनुसार ‘कन्हैया के मामले में पुलिस की चार्जशीट कहती है कि फरवरी 2016 में जेएनयू परिसर में देशविरोधी नारे लगाए गए थे। सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने के लिए अन्य छात्रों को भी उकसाया गया।

जेएनयू के मुख्य सुरक्षा अधिकारी और अन्य सुरक्षाकर्मियों ने पुलिस को दिए अपने बयान में कहा कि तब 15 से 20 छात्र मौजूद थे और कन्हैया कुमार इस सभा की अगुअाई कर रहे नेताओं में से एक था। जाहिर है, आतंकी अफजल गुरु और देश के टुकड़े कर देने वाले इनके नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता।’

राजद्रोह के खिलाफक्या है कानून?

हमारे देश में राजद्रोह को मुख्यतौर पर भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के अंतर्गत परिभाषित किया गया है। धारा कहती है कि अगर कोई व्यक्ति बोलकर, लिखकर, संकेतों के जरिये या अन्य माध्यम से सरकार के खिलाफ नफरत, अवमानना या असंतोष भड़काता है तो यह राजद्रोह है। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट सुमीत वर्मा के मुताबिक देश की अखंडता व एकता को नुकसान पहुंचाने, राष्ट्रीय चिह्नों का अपमान करने या संविधान को नीचा दिखाने वालों पर भी राजद्रोह का ही मामला दर्ज होता है। यह एक गैरजमानती अपराध है। इसमें उम्रकैद की सजा का प्रावधान है।

क्या एक ही हैं राजद्रोह व देशद्रोह?

नहीं, दोनों अलग-अलग तरह के अपराध हैं। कन्हैया कुमार व जेएनयू छात्रों पर राजद्रोह का केस दर्ज हुआ है। दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील एमएस खान बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति आपराधिक बल, हथियार या अन्य साधनों के माध्यम से देश के खिलाफ युद्ध छेड़ता है या इसका षड्यंत्र रचता है तो उस पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया जाता है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो ऐसे मामले देश के खिलाफ आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने से जुड़े होते हैं। ऐसे में भारतीय दंड संहिता की धारा 121 व 121ए के अंतर्गत मामला दर्ज होता है। इसमें उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सजा हो सकती है। ऐसी गतिविधि में शामिल लोगों के साथ किसी भी तरह की साठगांठ रखने वालों को भी दोषी करार दिया जा सकता है। देश में आतंकी फंडिंग करने वाले कुछ संगठनों, माओवादी और अलगाववादी संगठनों को इसी कानून के तहत प्रतिबंधित किया गया है।

कब व क्यों लाया गया यह कानून?

सुप्रीम कोर्ट के वकील रोहन डी. भौमिक ने बताया कि राजद्रोह कानून 1860 में बनाया गया था। फिर 1870 में इसे आईपीसी के छठे अध्याय में शामिल किया गया। इस कानून को ब्रिटिश सरकार ने बनाया था और देश की आजादी के बाद इसे भारतीय संविधान ने जस-का-तस अपना लिया। इस कानून के तहत पहला मामला 1891 में अखबार निकालने वाले जोगेंद्रचंद्र बोस पर दर्ज हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने इस कानून का इस्तेमाल बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ भी किया था। तिलक ने अपने समाचार पत्र केसरी में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था- देश का दुर्भाग्य। 1922 में अंग्रेज सरकार ने महात्मा गांधी को भी धारा 124ए के तहत देशद्रोह का आरोपी बनाया था। उनपर आरोप थे कि उन्होंने अंग्रेजी राज के विरोध में अखबार में तीन लेख लिखे थे। हालांकि 2010 में खुद ब्रिटेन में राजद्रोह के कानून को खत्म कर दिया गया है।

आजादी के बाद किन चर्चित मामलों में हुआ इस कानून का इस्तेमाल?

  • बिहार के केदारनाथ सिंह के एक भाषण को आधार बनाकर 1962 में राज्य सरकार ने उनपर राजद्रोह का केस दर्ज किया था। मगर तब हाई कोर्ट फिर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी।
  • 2010 में छत्तीसगढ़ के डॉक्टर तथा आंदोलनकर्ता बिनायक सेन पर नक्सल विचारधारा फैलाने के आरोप में धारा 124ए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। सेन के अलावा नारायण सान्याल व कोलकाता के बिजनेसमैन पीयूष गुहा को भी इन आरोपों में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। हालांकि सेन को 2011 में सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गई।
  • भारत माता से जुड़े भद्दे और गंदे कार्टून पोस्ट करने की वजह से असीम त्रिवेदी नाम का उत्तरप्रदेश का एक कार्टूनिस्ट भी इस कानून में घिरा। 2012 में उसे मुंबई में गिरफ्तार किया गया। असीम ने ये कार्टून 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए एक आंदोलन के समर्थन में बनाए थे।
  • तमिलनाडु सरकार ने 2012 में कुडनकुलम परमाणु प्लांट का विरोध करने वाले 7 हजार ग्रामीणों के खिलाफ यह धारा लगा दी थी।
  • 2015 के पाटीदार आंदोलन में गुजरात के कई जिलों में हिंसा भड़कने के बाद आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, उनके दो साथी दिनेश बंभानिया और चिराग पटेल के खिलाफ भी इस कानून में आरोप दर्ज किए गए थे। 2018 में इन पर आरोप तय कर दिए गए।
  • इनके अलावा ताजा मामला कन्हैया कुमार का है। कन्हैया को 2016 में दिल्ली पुलिस ने इन आरापों में गिरफ्तार किया था।

इस कानून पर क्या कहता है सुप्रीम कोर्ट?

केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 20 जनवरी 1962 को दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला राजद्रोह मामलों में मील का पत्थर माना जाता है। कोर्ट ने इस धारा को संविधान सम्मत तो बताया था, लेकिन कहा था कि शब्दों या भाषणों को तभी राजद्रोह माना जा सकता है, जब भीड़ को उकसाया गया हो और भीड़ हिंसा पर उतर आई हो। यदि शब्दों या भाषण से हिंसा नहीं हुई है तो वे राजद्रोह का आधार नहीं हो सकते। तब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि नागरिकों को सरकार के बारे में अपनी पसंद के अनुसार बोलने, लिखने का अधिकार है। केवल उन्हीं गतिविधियों में मामला दर्ज किया जा सकता है, जहां हिंसा का सहारा लेकर अव्यवस्था तथा सार्वजनिक शांति भंग करने की नीयत हो। इसके अलावा 1995 के बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया था कि दो व्यक्तियों द्वारा यूं ही नारे लगा दिए जाने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। इसे सरकार के विरुद्ध नफरत या असंतोष फैलाने का प्रयास नहीं माना जा सकता।

क्या अभिव्यक्तिकी आजादी के खिलाफ है यह कानून?

दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एसएन ढींगरा कहते हैं कि सरकार का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करना या बदलाव की मांग करना हर नागरिक का अधिकार है। मगर संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की आजादी इस शर्त पर दी है कि वह किसी अन्य या संविधान के लिए अहितकारी न हो। अगर देश की सत्ता को गैरकानूनी तरीके से चुनौती देते हुए विचारों की अभिव्यक्ति की जाएगी तभी यह राजद्रोह कहलाएगा। इसलिए धारा 124ए किसी भी तरह से अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ नहीं है।

आगे क्या होगा?

केंद्र सरकार इस कानून को और कड़ा बनाने के प्रयास में जुटी है। इसमें कुछ और नए अपराधों को शामिल किए जाने की तैयारी है। इसके लिए जुलाई 2018 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक ड्राफ्ट भी तैयार किया था। गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहीर ने भास्कर से बातचीत में बताया कि उस समय इसे संसद के सत्र में नहीं रखा जा सका। मगर 31 जनवरी से 13 फरवरी तक होने वाले सत्र में इसे आगे बढ़ाया जा सकता है। माना जा रहा है सरकार ने संशोधन पर विचार इसलिए किया है, क्योंकि लॉ कमीशन की रिपोर्ट में पाया गया था कि राजद्रोह के आरोप जल्दी से साबित नहींं हो पाते। इस तरह के मामलों में आरोपी अक्सर अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने अपने बचाव का प्रयास करते हैं।

9 दर्ज मामलों में से कितने हो पाते हैं साबित?

संसद में गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 से 2016 के बीच 179 लोगों पर राजद्रोह के केस दर्ज हुए। मगर इनमें से सिर्फ 2 पर ही अदालत में दोष साबित हो सका। रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में 58 लोगों को धारा 124ए के तहत गिरफ्तार किया गया, जिसमें केवल एक पर ही दोष साबित हो पाया। वर्ष 2015 में 30 मुकदमे दर्ज हुए, जिनमें 73 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें से तो एक पर भी राजद्रोह साबित नहीं हो पाया। वर्ष 2016 में 35 केस दर्ज हुए, 48 लोगों की गिरफ्तारी भी हुई, लेकिन महज एक पर ही दोष साबित हो सका।

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