नई दिल्ली.पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है। इनके बाद आम चुनाव की बारी आएगी। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सोशल मीडिया खासतौर पर फेसबुक और ट्विटर का जमकर इस्तेमाल किया था। इसके बाद करीब-करीब हर दल ने सोशल मीडिया की राह पकड़ी। लेकिन अब राजनीतिक दांव पेंच के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर भी एक नया ट्रेंड जोर पकड़ रहा है। अब छोटे शहरों के वोटरों पर दो तरह से फोकस किया जा रहा है। पहला- प्रमुख नेता अब सोशल पोस्ट के दौरान हिंदी का ज्यादा इस्तेमाल करने लगे हैं। दूसरा- अब ऐसे सोशल प्लेटफॉर्म्स का भी इस्तेमाल किया जा रहा है, जिन पर क्षेत्रीय यूजर्स ज्यादा हैं। इन पर राजनीतिक दल और नेता स्थानीय भाषा में पोस्ट डाल रहे हैं।
कांग्रेस के मुकाबले भाजपा हिंदी के इस्तेमाल में आगे
पार्टी | हिंदी में ट्वीट | अंग्रेजी में ट्वीट |
भाजपा | 75% | 25% |
कांग्रेस | 40% | 60% |
देश में जितने मोबाइल यूजर, उनमें से आधे ही करते हैं इंटरनेट का इस्तेमाल
इंटरनेट यूजरः 50 करोड़
मोबाइल यूजरः 65 करोड़
मोबाइल इंटरनेट यूजरः 32 करोड़
2020 तक का अनुमानः 72 करोड़
(छोटे शहरों, कस्बों और गांव के 57 फीसदी मोबाइल इंटरनेट यूजर्स 25 से कम उम्र के)
75% डिजिटल यूजर अपनी भाषा में पसंद करते हैं संवाद
फेसबुक और ट्विटर के बाद राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों के प्रमुख चेहरे अब शेयर चैट (हिंदी+14 भाषाएं), रोपोसो (हिंदी+9 भाषाएं), मुंगानूल (तमिल), ई-जीबोन (बंगाली) जैसे प्लेटफॉर्म पर भी तेजी से उभरने लगे हैं। शेयर चैट का उदाहरण लें तो इसे देसी फेसबुक कह सकते हैं। इस पर फेसबुक-ट्विटर के मुकाबले हिंदी बोलने, पढ़ने, लिखने और कंटेंट शेयर करने वाले यूजर ज्यादा हैं। हिंदी के अलावा इसमें भोजपुरी, हरियाणवी और राजस्थानी समेत 14 अन्य भाषाओं का विकल्प भी उपलब्ध है। खास बात ये है कि इसमें अंग्रेजी भाषा का विकल्प नहीं है। टियर-2 और टियर-3 शहरों के गैर-अंग्रेजी यूजर के बीच यह फेसबुक-ट्विटर से ज्यादा लोकप्रिय है।
20 गुना बढ़े शेयर चैट के यूजर्स
अक्टूबर 2015 में आए इस प्लेटफॉर्म के यूजर्स सिर्फ 18 महीने में 20 गुना तक बढ़े हैं। इसमें अपनी भाषा में सभी फंक्शन इस्तेमाल करना आसान है। इसके अलावा शेयर चैट की पोस्ट को आसानी से वॉट्स एप पर भी शेयर किया जा सकता है। यही वजह है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह, महाराष्ट्र के सीएम देवेंद्र फडणवीस और दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी जैसे चर्चित नाम भी शेयर चैट पर सक्रिय हैं। कांग्रेस की कई स्टेट यूनिट भी इस पर एक्टिव हैं।
सस्ते इंटरनेट ने बदली राजनीति की भाषा
जियो के आने बाद शुरू हुए सस्ते डेटा वॉर का सबसे ज्यादा फायदा छोटे शहरों के यूजर को मिला। इस वजह से प्राथमिक तौर पर अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएं ज्यादा बोलने वाले यूजर की संख्या सबसे ज्यादा बढ़ी है। 2011 में जहां हिंदी और क्षेत्रीय भाषा में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 4.2 करोड़ थी, वहीं 2016-17 में यह आंकड़ा करीब 24 से 25 करोड़ यूजर पर आ गया।
दलों का जोर छोटे शहरों पर
गूगल और केपीएमजी का अनुमान है कि 2021 तक 18 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाले इंटरनेट यूजर्स का आंकड़ा 53 करोड़ से ज्यादा होगा। वहीं, अंग्रेजी भाषा वाले यूजर्स का आंकड़ा महज 3 फीसदी की बढ़ोतरी के साथ 20 करोड़ रहेगा। एक प्रमुख राजनीतिक दल की सोशल मीडिया कैम्पेन टीम से जुड़े एनालिस्ट के मुताबिक, अब दलों का जोर छोटे शहरों के यूजर पर है। फेसबुक और ट्विटर के प्राइमरी यूजर अंग्रेजी भाषा के साथ सहज हैं लेकिन लैंग्वेज बैरियर की वजह से छोटे शहरों के यूजर इन प्लेटफॉर्म पर उतना सहज और सक्रिय नहीं रहते।
किसी भी राजनीतिक दल को ऐसा यूजर बेस ज्यादा चाहिए जो उनकी कही बात को स्क्रीन के साथ-साथ ग्राउंड पर भी फैला सके। लोकल प्लेटफॉर्म के जरिए पार्टी के एजेंडा के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों को भी आसानी से स्थानीय भाषा में लोगों तक पहुंचा सकते हैं। फेसबुक या ट्विटर यूजर के मुकाबले लोकल प्लेटफॉर्म के यूजर के किसी एक पार्टी के पक्ष में वोट देने की संभावना ज्यादा होता है।
यूजर की भाषा में पॉलिटिकल कंटेंट परोसा जा रहा
ज्यादातर कंटेंट के वायरल होने के ट्रेंड की शुरुआत लोकल भाषा के चैट ग्रुप से ही होती है। कोई भी पोस्ट इन लोकल ग्रुप से ट्रेंड करना शुरू करती है और धीरे-धीरे फेसबुक, यूट्यूब और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म पर जगह बना लेती है। शेयर चैट जैसे प्लेटफॉर्म के मामले में भी यही सिद्धांत काम करता है। यहां यूजर को उसी की भाषा में पॉलिटिकल कंटेंट परोसा जाता है। भाषाई दिक्कत न होने की वजह से यूजर उसे ग्राउंड लेवल पर ज्यादा से ज्यादा शेयर करता है। नतीजा ये होता है कि तय पॉलिटिकल एजेंडा की पहुंच जमीन पर ज्यादा मजबूत हो जाती है।
जनता की नब्ज पकड़ना ज्यादा आसान
सोशल मीडिया विशेषज्ञों के मुताबिक फेसबुक के मुकाबले स्थानीय भाषा में उपलब्ध सोशल प्लेटफॉर्म के जरिए यह जानना ज्यादा आसान है कि किसी राज्य के किस हिस्से में यहां तक कि किस जिले में कौन-सा राजनीतिक मुद्दा ज्यादा छाया हुआ है। उस मुद्दे से जुड़ी पोस्ट को कितनी बड़ी संख्या में पंसद या नापसंद किया जा रहा है। किस दल या नेता के पक्ष या विपक्ष में ज्यादा माहौल बना हुआ है।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today