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Posted by Surinder Verma on Wednesday, June 17, 2020

सर्वसमावेशी संस्कृति का प्रतीक महाकुंभ

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सर्वसमावेशी संस्कृति का प्रतीक महाकुंभ

यदि आप भारत के गांव-कस्बों से गुजरें तो ऐसे असंख्य लोग मिल जाएंगे. जो प्रातः स्नान करते समय ‘गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती । नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन् संनिधि कुरु॥‘ का मंत्रोच्चार कर रहे होंगे। इस मंत्र का अर्थ है- हे यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, और कावेरी हमारे जल में उपस्थित होकर इसे पवित्र करो। स्नान के नित्यकर्म में राष्ट्र की सभी पवित्र नदियों का आह्वान यह बताता है कि भारतभूमि के लोगों की नदियों के प्रति कितनी गहरी श्रद्धा है।

विश्व की लगभग सभी सभ्यताओं का जन्म नदी तटों पर हुआ है, लेकिन भारत तो नदी संस्कृति का ही देश है। उत्तर में सिंधु से लेकर दक्षिण में कृष्णा-कावेरी तक और पूर्व में ब्रहमपुत्र से लेकर पश्चिम में नर्मदा तक भारत की ये पुण्य सलिलाएं अनंतकाल से कोटि-कोटि भारतवासियों के जीवन का उद्धार करती रही हैं। ये नदियां माँ की तरह ही हमारा भरण-पोषण करती हैं। हम जब भी समस्याओं में उलझे होते हैं तो इन नदी रूपी माताओं के निकट आकर शांति की तलाश करते हैं और अपनी इहलौकिक यात्रा को समाप्त कर पारलौकिक यात्रा के लिए भी इन्हीं नदियों की गोद में पहुंचते हैं। इन नदियों का न केवल हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन में विलक्षण महत्व है, अपितु ये सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक तथा अन्य कई रूप से भी सहायक मानी जाती हैं।

यही कारण है कि हमारे धार्मिक ग्रंथों में नदियों को माता का दर्जा दिया गया है। ऋग्वेद के नदी सूक्त से लेकर आधुनिक साहित्य तक, नदियों की महिमा को व्यापक रूप से दर्शाया गया है। महाभारत, मत्स्य पुराण, ब्रह्म पुराण और कालिदास के ग्रंथों में भी नदियों की पवित्रता को रेखांकित किया गया है।
कुंभ महापर्व, नदियों के महात्म्य का ही महापर्व है, जो विविधतता में एकता प्रदर्शित करने में केंद्रीय भूमिका निभाता है। कुंभ मेला भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक परंपराओं का सबसे बड़ा पर्व है। यह महापर्व खगोल विज्ञान, आध्यात्मिकता, कर्मकांड की परंपराओं और सामाजिक तथा सांस्कृतिक ज्ञान-विज्ञान की बहुवर्णीयता से सभी को आकर्षित करता है।

अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि भगवान ब्रह्मा ने हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक चार कुंभ स्थापित किए, जिससे यह आयोजन पवित्र माना जाता है। स्कंद पुराण में कुंभ योग बताते हुए कहा गया है ‘मेषराशिंगते जीवे मकरे चन्द्र भास्करी। अमावास्या तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थनायके ।।’ अर्थात ‘जिस समय बृहस्पति मेष राशि पर स्थित हो तथा चंद्रमा और सूर्य मकर राशि पर हों तो उस समय तीर्थराज प्रयाग में कुंभ-योग होता है।’

कुंभ का आयोजन समाज, धर्म और संस्कृति के समन्वय का प्रतीक है। इसमें प्रमुख अखाड़ों के संत, महात्मा और नागा संन्यासी संसार के संपूर्ण कष्टों के निवारण हेतु तथा समाज, राष्ट्र, और धर्म आदि के कल्याण के लिए अमूल्य दिव्य उपदेश प्रदान करते हैं। प्रयाग में कुंभ के तीन प्रमुख स्नान होते हैं—मकर संक्रांति, मौनी अमावस्या और वसंत पंचमी पर। इन तीनों स्नानों में सर्वप्रथम स्नान निर्वाणी अखाड़े का, द्वितीय स्नान निरंजनी अखाडे का और तृतीय स्नान जूना अखाडे का होता है। इसके पश्चात् समस्त संप्रदाय के लोगों का होता है।
कुंभ-पर्व की प्राचीनता के संबंध में तो किसी संदेह कीआवश्यकता ही नहीं, किंतु यह बात अवश्य महत्त्वपूर्ण है कि कुंभ मेले का धार्मिक रूप में श्रीगणेश किसने किया ? विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि कुंभ मेले के प्रवर्तक आदि शंकराचार्य हैं। उन्होंने कुंभ-पर्व के प्रचार की व्यवस्था धार्मिक संस्कृति को सुदृढ़ रखने के लिए तथा जगत कल्याण की दृष्टि से की थी। उन्हीं के आदर्शानुसार आज भी कुंभपर्व के चारों सुप्रसिद्ध तीर्थों में सभी संप्रदाय के साधु-महात्मागण देश-काल-परिस्थिति अनुरूप लोककल्याण की दृष्टि से धर्म-रक्षार्थ धर्म का प्रचार करते हैं, जिससे सर्वजन कल्याण होता है।

कुंभ का इतिहास कान्यकुब्ज के शासक सम्राट हर्षवर्धन के साथ भी जुड़ा है। हर्षवर्धन कुंभ के अवसर पर प्रयाग में ही रहकर सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन करते और सभी मतावलंबियों के विचार सुनते थे। धार्मिक सहिष्णुता के साथ-साथ महाराज हर्षवर्धन इस अवसर पर अपनी दानशीलता का भी परिचय देते थे। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण के अनुसार कुंभ में वह अपना सर्वस्व मुक्तहस्त से दान कर देते थे। सम्राट् हर्षवर्धन ने अपना समूचा कोष प्रयाग कुंभ के अवसर पर दान कर दिया। जब दान के लिए कुछ और शेष नहीं रहा, तब उन्होंने अपने वस्त्राभूषण तथा मुकुट तक उतार कर दे दिए। जब शरीर पर वस्त्र भी नहीं बचे तो उनकी बहन राज्यश्री ने उन्हें पहनने के लिए वस्त्र दिए। । महाराज हर्षवर्धन के त्याग और दान की यह प्रेरक परंपरा कुंभ में अब तक अक्षुण्ण चली आ रही है।

कुंभ केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि इसका वैज्ञानिक और ज्योतिषीय पक्ष भी महत्त्वपूर्ण है। जब सूर्य मकर राशि में और गुरु कुंभ राशि में होते हैं, तब स्नान करने से व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। संगम के जल में प्राकृतिक खनिज और औषधीय गुण होते हैं, जिससे यह स्नान शरीर की शुद्धि का माध्यम बनता है।

करोड़ों की संख्या में श्रद्धालुओं के आने के बावजूद यहां आधुनिक तकनीक के प्रयोग और कुशल प्रबंधन ने कुंभ मेले को विश्व का सबसे बड़ा और व्यवस्थित आयोजन बना दिया है। स्वच्छता, सुरक्षा और सुविधा का ऐसा संगम शायद ही कहीं और देखने को मिले। सरकार और प्रशासन ने इसे पर्यावरण अनुकूल बनाने के लिए विशेष प्रयास किए हैं, जिससे यह आयोजन न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय संदेश भी देता है।

कुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और वैश्विक भाईचारे का प्रतीक भी है। यह ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को साकार करता है, जहाँ जाति, धर्म और वर्ग से परे सभी श्रद्धालु एक समान होते हैं। यह पर्व हमें आत्मशुद्धि, परोपकार और सामाजिक सद्भाव का संदेश देता है। कुंभ के माध्यम से भारतीय संस्कृति और जीवन-दर्शन को वैश्विक स्तर पर पहचान मिलती है। विदेशी पर्यटक यहां भारतीय परंपराओं को समझने और आत्मसात करने आते हैं।
कुंभ मेला भारतीय संस्कृति की गहराई, सहिष्णुता और एकता का अद्भुत संगम है। यह केवल पवित्र स्नान का पर्व नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ रहस्यों को जानने, आत्मचिंतन करने और मानवता के प्रति समर्पण व्यक्त करने का एक अवसर भी है। भारत की सनातन परंपरा में यह आयोजन अनूठी आस्था, संस्कृति और दर्शन का परिचायक बना रहेगा।