हाजी पंडित ने आते-आते अजीब-सी हरकत की। सोफ़े पर चढ़कर दीवार पर टंगे कैलेंडर से जा चिपके। जब हटे, तो 8 नवंबर की तारीख़ ही गायब थी। ठिठोली को लेकर हाजी बड़े सीरियस रहते हैं, सो इस काम के लिए भी कैंची लेकर घर से ही चले थे। कैंची को जेब के हवाले करते हुए 8 लिखा हुआ टुकड़ा मेरे हाथ में थमा दिया।
मैंने आश्चर्य से देखा तो कुछ पूछने से पहले ही बोले, ‘8 नवंबर को तुम्हारा कटना तय है। पिछले साल वो काट गए, इस साल ये ठग काट गए। जब साल दर साल कट ही रहा है,तो मैंने भी काट दिया। दो बार बड़े-बड़ों ने काटा, तो एक बार ये नाचीज़ ही सही!’ हाजी की मुस्कुराहट पर मुझे भी हंसी आ गई। मैंने कहा, ‘बात तो तुम सही कह रहे हो हाजी। इस तारीख़ की ख़ुद की कंुडली गड़बड़ है। लेकिन, ये जो तुमने 8 नवंबर का छेद किया है, इसके पीछे 6 दिसंबर दिख रहा है। तब तक तो जिसका कटना होगा कट चुका होगा। आखिरी राउंड का चुनाव प्रचार भी थम चुका होगा। तब की बताओ हाजी।
’ हाजी अचानक बाबा हो गए, ‘सही कह रहे हो महाकवि! उस दिन तो तूफान से पहले वाली शांति होगी। और 11 दिसंबर को तूफान। वैसे सच पूछो महाकवि तो सियासत में तूफान-वुफान कुछ होता नहीं है। एक की हवा चलती है, दूसरे की हवाइयां उड़ती हैं।’ इस तरह की नाबालिग जुमलेबाज़ी करके हाजी जिस तरह से ख़ुद ही ठठाकर हंसते हैं, वो देखने लायक होता है।
मैंने आगे पूछा, ‘हाजी राजस्थान में तो ऊंट अबके उल्टी करवट बैठ ही गया दिख रहा है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से क्या इशारा है?’ हाजी ने कहा, ‘इशारे तो मुहब्बत में होते हैं मेरे शायर दोस्त, सियासत में तो रुझान होता है! और अभी तो पत्ते बिछने शुरू हुए हैं। खेल शुरू तो होने दो। तुम तो गरारे में ही बेचैन हो गए महाकवि! अभी तो तबले से मध्यम मिलाया जाएगा, फिर आलाप होगा, फिर स्थायी होगा।
ये तुम्हारा बॉलीवुड थोड़ी है। इंतज़ार करो। वो क्या कहते हैं तुम्हारी फिल्मी भाषा में – कहानी अभी बाकी है मेरे दोस्त!’ इतने ज्ञान के बाद मैं समझ गया कि हाजी को आने वाले समय में बड़ी उथल-पुथल की आशंका दिख रही है। मैंने पूछा, ‘आज बड़े फूंक-फूंककर बयान दे रहे हो हाजी। इतना सोचकर बोलोगे तो टीवी पर एक्सपर्ट पैनल में कैसे आओगे?
‘‘हाजी ने प्रस्ताव को झाड़ फेंका, ‘नाश जाए एक्सपर्ट पैनल का! टीवी में ही शक्ल दिखानी होगी तो तुम्हारे वाले प्रोगाम में नहीं आ जाऊंगा? फूंककर बयान इसलिए दे रहा हूं कि जिस तरह से परिवार के कारण राजनीति बर्बाद हो रही है और राजनीति के कारण परिवार बर्बाद हो रहे हैं, कल पता नहीं कौन-सी चिड़िया किस डाल पर बैठी मिले। अपने महबूब शायर निदा फ़ाज़ली साहब का शेर याद है न-
‘‘अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं’’
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