क्रिटिक रेटिंग | 2/5 |
स्टार कास्ट | काजोल, रिद्धि सेन,नेहा धूपिया |
डायरेक्टर | प्रदीप सरकार |
प्रोड्यूसर | अजय देवगन, जयंतीलाल गाड़ा |
जोनर | सोशल ड्रामा |
ड्यूरेशन | 130 मिनट |
हेलिकॉप्टर ईला की कहानी- 'हेलिकॉप्टर ईला' 2015 में आई 'दिलवाले' के बाद काजोल की कमबैक फिल्म है। इस फिल्म में काजोल ने हेलिकॉप्टर पेरेंट का किरदार निभाया है। यह टर्म ऐसे पेरेंट्स के लिए यूज होता है जो बच्चे के जन्म के बाद उसकी लाइफ में इतने इनवॉल्व हो जाते हैं कि अपनी लाइफ को भूल जाते हैं। ईला मॉडल और उभरती हुई सिंगर है। वो पॉप सिंगर बनने वाली है, यहां तक कि उसे MTV इंडिया लॉन्च 1996 में इनवाइट किया जाता है, लेकिन उसके बेटे विवान (रिद्धि सेन) के जन्म के कुछ समय बाद ही ईला का बॉयफ्रेंड अरुण (तोता रॉय चौधरी) जो कि अब उसका पति है उसे छोड़कर चला जाता है। ऐसे मैं ईला अपने सपनों को भूलकर विवान की देखरेख में लग जाती है। विवान को पालना ही उसकी लाइफ का मिशन बन जाता है। लेकिन बाद में वह ओवर पजेसिव मां बन जाती है जो कि बेटे की पिकनिक तक में पहुंच जाती है। वह उसे प्राइवेसी नहीं देती। हद तो तब हो जाती है जब ईला विवान पर नजर रखने के लिए कॉलेज ज्वाइन कर विवान के साथ क्लास जाने लगती है।
'हेलिकॉप्टर ईला' का रिव्यू- यह फिल्म आनंद गांधी के गुजराती नाटक 'बेटा कागडो' पर आधारित है, लेकिन फिर भी निराश करती है। फिल्म इसके टॉपिक से न्याय नहीं कर पाती। यहां तक कि आप ईला के स्ट्रगल में भी इनवॉल्व नहीं हो पाते। प्रोडक्शन भी अच्छा नहीं है, ऐसा लगता है कि फिल्म के सारे सीन स्टूडियो में शूट हुए हैं। फिल्म के किरदारों ने भी स्क्रिप्ट को गंभीरता से नहीं लिया है। अरुण की मां को बेटे के जाने से कोई दुख होता नहीं दिखाई देता, वहीं विवान का भी ईला के प्रति भावानात्मक जुड़ाव नहीं दिखता जैसा कि एक बच्चे का होना चाहिए। डायरेक्टर सरकार के पास ऐसे पैरेंट्स की कहानी को दिखाने का अच्छा मौका था जो कि बच्चों पर हद से ज्यादा कंट्रोल करते हैं और ये मानना ही नहीं चाहते कि उनके बच्चे बड़े हो चुके हैं और उनका खुद का भी दिमाग है जिससे वे डिसीजन ले सकते हैं, लेकिन वे मेलोड्रामा क्रिएट करने में ही लगे रहे। यह फिल्म फनी या इमोशनल ड्रामा दोनों तरह से बनाई जा सकती थी लेकिन, इसमें कुछ भी नहीं है। काजोल भी निराश करती हैं क्योंकि वे इसमें अपनी चंचलता से दूर हो गई हैं। वे फिल्म में शानदार दिखी हैं। इस फिल्म में अच्छे डायरेक्शन की कमी के चलते जैसे इमोशन होने चाहिए थे वैसे नहीं दिखे। कुछ सीन ऐसे हैं जिसमें मां और बेटे के इमोशन को दिखाया गया है, लेकिन वे काफी नहीं है। नेहा धूपिया ने पदमा का रोल किया है जो कि स्कूल में टीचर है। वो ईला का सपोर्ट करती है। वे रोल में फिट हुई है और उनका काम अच्छा है। नेशनल अवॉर्ड विजेता रिद्धि सेन ने शानदार काम किया है। एक कंफ्यूज किशोर के रोल में उन्होंने जान डाल दी है। अच्छी स्क्रिप्ट उनकी प्रतिभा के साथ न्याय कर सकती थी। फिल्म की अच्छी बात है कि ये हमें 90 के दशक में ले जाती है क्योंकि इसमें शान, बाबा सहगल, ईला अरुण और महेश भट्ट ने कैमियो अपीयरेंस दी है। फिल्म का क्लाईमेक्स काजोल के चार्म से न्याय करता हुआ दिखता है लेकिन यह भी बाकी फिल्म की तरह ही फ्लैट है। फिल्म को देखिए अगर आप काजोल के बड़े फैन हैं और स्क्रीन पर उन्हें मिस कर रहे हैं।
रिव्यू- शुभा शाह शेट्टी
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