पुणे. आंखों की रोशनी न होने के बावजूद हिमालय तक जाने की इच्छा को दिव्यांशु गनात्रा ने हौसले से पूरा कर लिया। ग्लूकोमा के चलते उनकी आंखों की रोशनी 19 साल की उम्र में चली गई थी। लेकिन उन्होंने साइकिलिंग को जीवन बना लिया। वे अब तक चार बार हिमालय की यात्रा कर चुके हैं।
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दिव्यांशु कहते हैं- मुश्किल वक्त में मेरे परिवार ने मुझ पर काफी भरोसा दिखाया और वे मेरे साथ खड़े रहे। घर के लोग मेरे दोस्तों के साथ बैठकर मेरे भविष्य की योजनाएं बनाते थे। उस दौरान मैं उनके पास ही मौजूद होता था।
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दिव्यांशु के मुताबिक- दोस्तों ने एक दिन कहा कि मुझे पहाड़ पर चढ़ना है और मेरे साथ कोई नहीं जा रहा। परिवार को लगा कि इसके लिए मैं कभी राजी नहीं होऊंगा। परिवारवालों को लगता था कि दृष्टिहीन व्यक्ति कैसे पहाड़ पर चढ़ सकता है? फिर मैंने यह सोचना शुरू किया कि देख पाने में अक्षम आदमी किस तरह महसूस करता है।
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दिव्यांशु बताते हैं- दरअसल दिव्यांग आपके आसपास होते हैं, उनकी संख्या भी लाखों में है, लेकिन आपको उनके कार्यकलापों के बारे में पता नहीं होता। उन्हें सामान्य रूप से ऑफिसों में काम करते हुए भी नहीं देखा जाता। मैंने उनकी तरह सोचना शुरू किया।
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दिव्यांशु ने 2014 में दिव्यांगों की मदद के लिए चैरिटी भी शुरू की। साथ ही दिव्यांगों के लिए उन्होंने एडवेंचर स्पोर्ट्स भी शुरू किए। दिव्यांशु कहते हैं कि मैं शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को इतना सक्षम बनाना चाहता हूं कि उन्हें सहानुभूति की जरूरत ही न हो। इसके लिए एडवेंचर स्पोर्ट्स से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता।
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दिव्यांशु हर साल हिमालय क्षेत्र में दिव्यांगों के लिए 500 किमी की साइकिलिंग प्रतियोगिता भी करवाते हैं। वह चार बार हिमालय की श्रृंखलाओं पर लंबी दूरी की साइकिलिंग कर चुके हैं।
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दृष्टिहीन होने के चलते दिव्यांशु अकेलेसाइकिल पर नहीं चल सकते। लिहाजा उन्होंने टू सीटर साइकिल बनवाई। साइकिल की आगे वाली सीट पर उनका ट्रेनर होता है। दिव्यांशु की प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले दिव्यांग भी उन्हीं को फॉलो करते हैं। ट्रेनर उसी को लिया जाता है जिसे साइकिलिंग और रास्तों का पता हो।
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दिव्यांशु कहते हैं- यह सच है कि भविष्य में मैं कभी देख नहीं पाऊंगा। लेकिन वह सबकुछ करना चाहता हूं जो एक सामान्य व्यक्ति (आंखों से देखने वाला) करता है।