कांग्रेस के उत्तराधिकारी राहुल गांधी के औपचारिक रूप से राजनीति में शामिल होने के 13 साल हो पूरे हो गए हैं. वैसे तो ये नंबर भारतीय राजनीति के लिए कोई ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है. हालांकि ये अपने आप में राहुल गांधी के लिए काफी महत्वपूर्ण है, जो इस क्षेत्र में बाकियों के उतने ही बराबर हैं.
इस क्षेत्र में और लोगों के उलट वो एक परिवार से आते हैं-गांधी परिवार से! जिसके पास व्यावहारिक रूप से ब्लू-चिप स्टॉक है.
अगर राहुल गांधी, विरासत में मिली गांधी परिवार की राजनीति को आगे बढ़ाते हैं तो ये वक्त है एक बार उन बातों पर ध्यान दिया जाए जो ब्रांड राहुल गांधी को ब्रांड नरेन्द्र मोदी जो अभी प्रधानमंत्री हैं, के बराबर लाएगा.
साफतौर पर कहा जाए तो राहुल गांधी के हाथ अबतक के करियर में सफलताओं से ज्यादा हार ही लगी है. कांग्रेस की हालिया सफलताओं पर नजर डालें तो इसका श्रेय उनकी मां सोनिया गांधी को ही जाता है, जो राजनीति में अनचाहे और नए सदस्य की तरह शामिल हुईं लेकिन उन्होंने दो दशकों तक शासन किया.
उनकी राजनीति में झिझक कुछ कांग्रेसी चाटुकारों की वजह से खत्म हुई, जो पार्टी को तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी से आगे देखना चाहते थे.
सोनिया के विपरीत, राहुल की अध्यक्षता में पार्टी 2014 के लोकसभा के चुनावों में सिर्फ 44 सीटों पर सिमट कर रह गई.
इसके बाद कांग्रेस को लगातार उत्तरप्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और असम में हार का सामना करना पड़ा. इसके अलावा, आलोचकों ने राहुल को ‘पप्पू और युवराज’ जैसे नाम से भी नवाजा. इनमें से कुछ शायद गलत भी हैं.
पीएम मोदी बनाम राहुल गांधी
राहुल के जल्द ही कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनने की खबरों के बाद ब्रांड राहुल बनाम ब्रांड मोदी की बहस फिर से गर्म हो गई है. क्या इन दोनों ब्रांड को भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एकसाथ देखा जाना संभव है? खासकर जब वे दोनों प्रतिष्ठित प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिए दावेदार हैं?
इस सवाल पर ब्रांड गुरु और हरीश बिजूर कंसल्ट्स इनकार्पोरेशन के संस्थापक हरीश बिजूर का कहना है, ‘दो ही क्यों? मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए कई लोग दावेदारी पेश कर सकते हैं, अलग-अलग छवि के लोग, लोगों की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करते हैं.’
बीजूर के अनुसार, राजनीतिक हस्तियां, डिटर्जेंट और दूध से अलग नहीं होती हैं. उनका कहना है, ‘अलग-अलग ब्रांड अलग-अलग ऑफर के साथ मौजूद होते हैं और वे लोगों की अलग-अलग जरूरतों को पूरा करते हैं.’
वहीं इसमें इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीड इन इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट की प्रोफेसर जयश्री जेठवानी के तर्क हरीश बिजूर से अलग हैं. उनका कहना है, ‘कई ब्रांड एक साथ अस्तित्व में तो हैं लेकिन सुपरब्रांड एक ही बन सकता है. 2014 लोकसभा चुनाव इसका सबसे बेहतर उदाहरण है कि कैसे एक बाहरी दुनिया से आए व्यक्ति को देश के सबसे उंचे पद के लिए चुना गया और वह नमो ब्रांड बनकर उभरा.’
लेकिन ब्रांड राहुल को कैसे इस जगह देखा जाए. क्या देश ऐसे किसी ड्राइवर के हाथ जिम्मेदारी देना चाहेगा जो अनियंत्रित है.
मोदी के मुकाबले राहुल का अनुभव भी बहुत कम है. लेकिन जेठवानी इससे अलग पहलु पर देखती हुई कहती हैं, मतदाताओं के साथ ये कभी भी एक मुद्दा नहीं था, उनकी समस्या हमेशा वास्तविक मुद्दों पर होती है जो राहुल के लिए सकारात्मक साबित होगी.
विशेषज्ञों का मानना है राहुल के साथ एक और महत्वपूर्ण समस्या है, उनकी स्थिरता की कमी. क्या उनका ऑन-एंड-ऑफ रवैया एक ब्रांड को टक्कर दे पाएगा.
बिजूर का मानना है, ‘इस असंगतता को खुद कांग्रेस के अलावा कोई और ठीक नहीं कर सकता. दुर्भाग्य से, राजनीति एक 24 घंटे वाली नौकरी की तरह है. राजनीतिक दौड़ में आपको जरूरत है अपने प्रतियोगी से तेज दौड़ें.’
वह राहुल के लिए नरेंद्र मोदी का उदाहरण देते हुए कहते हैं, पीएम मोदी ने एक लाइन खिंची जिसके साथ चलना बेशक मुश्किल है. लेकिन एक प्रतियोगी के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं है. उन्होंने कहा, ‘राजनीति में कभी संकट की स्थिति नहीं आती है जब आप समय के साथ उसकी बेहतर प्लानिंग कर लें. हमेशा एक्टिव होना बेहद जरूरी है.
हालांकि जेठवानी को लगता है, ब्रांड राहुल के लिए अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है.
उनका कहना है, ‘दिख रहा है कि राहुल मेहनत कर रहे हैं और जटिल मुद्दों पर बेहतर समझ रखते हैं. जेठवानी राहुल के गुजरात कैम्पेन को याद दिलाती हुई कहती हैं, ‘उनके भाषणों और विषयों दोनों में काफी सुधार हुआ है. अगर वे मुद्दों पर मतदाताओं का ध्यान आकर्षित कर सकने में और गुजरात में नए सामाजिक गठबंधन को एक साथ जोड़ने में सफल होते हैं तो एक बेहद दिलचस्प परिणाम देखा जा सकता है.